Wednesday, November 19, 2008

हम प्रगति कर रहे है

झूठ महंगाई की तरह फूल फल रही है!
और बड़ रही है आसमान छु रही है !
सच्चाई जमीन में गड़ गयी है !
ईमान यह देखकर अपना अस्तित्व बचने के लिए ,
यहाँ वहाँ छुपता फ़िर रहा है !

बईमानी हर आदमी को अपने आगोश में भर रही है !
द्वेष इर्श्या की बड़ती हुई सफलता को देख कर ,
दया करुणा अपनी असफलता पे व्यथित होकर ,
सूली पर चढ़ गयी है !
भ्रष्टाचार का कारोबार दिन दुगना रात चोगुना ,
फल फूल रहा है जिनसे कई की दूकान चल गयी है !

बदले नफरत की फसल तो गाँव गाँव शहर शहर !
आदमी की ह्रदय स्थली पर राजनीती का खाद पानी ,
पाकर गाजर घांस की तरह फल फूल रही है !
प्यार उपकार की फसल को उगने के लिए और पनपने के लिए ,
जमीन ही ना रह गयी है !

अकर्मंयता ने चापलूसी का मुखोटा लगा रखा है!
इस लिए कर्तब्यनिष्ठ के आईने पर ,
अंदेखी की धूल चढ़ गयी है !
अशलील और अशब्द स्वार्थ की कड़वी ,
चासनी में घुल कर जुबा पर ऐसे चिपक गए की ,
वाणी की मधुरता ही मर गयी है !

फ़िर भी यह दुनिया प्रगति कर रही है !
में नही यह सारी दुनिया कर रही है !
लगता है ये दुनिया भगवान् भरोसे ही चल रही है !

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