ये क्या किया इंसान तुने -२ ,
जो पाले कांटे तेरे दामन में !
फूलो सी जिंदगी मिली है ,
खुशबू नही तेरे आंगन में !
किस दौड़ में शामिल हुआ है ,
जो फुर्सत ही नही है पल की !
जो ख़ीँच गयी है फ़िक्र की लकीरे ,
नजर आती तेरे आँगन में !
वो छुटा माँटी का ओटला घर की दहरी ,
खुला खुला सा आंगन घर की कचहरी !
मिली दर दर की ठोकरे फांके फजिते ,
चल चल पड़ गए छाले तेरे पाँव में !
ये कैसा ताना बाना बुना है ,
जो हर तरफ़ जाल से बिखरे हुए !
जिसमे मन का पंछी ऐसे फंसा है ,
जो चहका नही है मन भवन में !
ये कैसा घोला है जहर हवा में ,
जो खुशियाँ बरसती नही है सावन में !
वो मस्तियों की चुल बुलाहट नही है ,
सब रंग बेरंग हुए है बसन्ती फागन के !
होठो पे मुस्कान नही है ,
आंख़ो में नही है खुशी ,
गम ही गम है मन की आंखे बुझी बुझी सी !
बहारे भी तो गुमसुम गुमसुम सी है ,
पतझर सा लगा है सुख चैन तेरे आंगन में !
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