Thursday, October 23, 2008

कलयुग

दम तोड़ती संवेदनाये संवेदना शुन्य होते लोग !
पत्थर दिल होते इंसान टूटते रिश्ते बिखरते परिवार !

भौतिक सुखो की दौड़ में बहु बेटे बोझ बनते माँ बाप !
निराश्रित होता बुडापा उनका घर उनकी जमीं उनकी संपात्ति ,
मगर विपत्ति से झुझते माँ बाप !
उपेक्छा अकेला पन झेलता बुडापा ,
वृधाश्रम में बड़ती संख्या ,
क्या यही है हमारी संस्कृति सभ्यता !

खुलापन प्रगति की दौड़ ,
क्या यही कहती है हमारी गीता कुरान ,
बाइबिल उपनिषद वेद पुराण !
सेवा सद्भाव को डस रहे है स्वार्थ के भुजंग ,
सहिष्णुता सोहार्द दया करुना अश्को को सुखा रही है !
द्वेष इर्शया की तपन होटों की मुस्कान ,
आँखों की खुशी चहरे की चमक छीन ले गयी है !

कुंठा हीनता प्रति स्पर्धा की घुटन ,
फ़िर भी अपने आप को इंसान कहते है !
इस दुनिया में अर्थवादी भौतिकवादी ,
सत्तावादी ऐशो आराम भोगी लोभी सभी लोग !
क्या यही है इस कलयुग का गुना भाग घटाव योग !

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